उदयपुर। समता मूर्ति साध्वी जयप्रभा की सुशिष्या साध्वी डॉ. संयम ज्योति ने खरतरगच्छ दिवस के उपलक्ष में कहा कि खरतरगच्छ की उद्भव ग्यारहवीं से तेरहवीं शताब्दी के बीच हुआ।
आचार्य जिनेश्वर सूरि ने अपनी प्रज्ञा, स्पष्टवारिता, अन्तर दृष्टि की दीर्घता से शिथिलाचार का उन्मूलन किया और सुविहित परम्परा का गौरव बढाया। उन्होंने कहा कि गुजरात में एक समय शुद्धाचार की पालना करने वाले सुविहित साधुओं का प्रवेश निषिद्ध था। शिथिलचारी साधुओं ने तंत्र मंत्र यंत्र से सारी प्रजा को वश में कर रखा था। साधु सुविधाभोगी हो गये थे। ताम्बुल आदि का सेवन करते थे, भोली जनता को ठगते थे। पाटण अध्ययन स्थली थी। वहाँ के लोगों को सम्यक जानकारी देने के लिये जिनेश्वर सूरि और वर्धमान सूरि ने अपनी प्रज्ञा से कहाँ प्रवेश किया और जनता को चौत्यवासी मुनियों के चंगुल से दूर करने के लिए उनसे शास्त्रार्थ किया। विजय हासिल होने पर वहाँ के न्यायी राजा दुर्लभ राजा ने खरतर उपाधि से उनको नवाजा। खरतर यानी खरा प्रखर। उनके अनुयायी खरतरगच्छ कहलाये।
इस परम्परा में महान से महानतम धुरन्धर आचार्य हुए जिन्होने आगमो का विलोडन मंथन कर के नवनीत निकाला। उसका अमृत पान स्वयं ने किया, सानिध्य में आने वालों को करवाया और भावी संतति के लिए ग्रंथ मंजूषाओं में संजो कर रखा।
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